Saturday, September 22, 2007

चांद

शाम के धुंधलके में
आसमान गहरा सलेटी सा था !
सूरज को विदा कर
हर घर दीप जलाने की
तैयारी में था !
अचानक सामने से
दूध सा धुला चांद
उजली दूधिया आभा लेकर
धीमे धीमे ऐसे निकला
जैसे कह रह हो कि --
आज फुर्सत से देखलो मुझको !
आज कोई बादल भी नहीं
कि मैं उसमें छिप जाऊंगा !
न ही तारे छिटके हैं दूर दूर तक !
हाँ, मैं रूक न सकूँगा ,
मुझे जाना होगा
और कुछ वक़्त बाद
फिर यहीं आना होगा !
मुझ संग चल सको
ऐसा भी मुमकिन नहीं !
देख लो जीं भर के मुझको
मैं तो धीमे धीमे निकला !
और ---
मैं उस चांद को देखती रही !
और देखती रही तब तक
जब तक वह सलेटी आसमान
कला सा हो गया !
और वह दूधिया चांद
एक हीरा सा हो गया !

1 comment:

'A' or 'Gazal' jit said...

Muze hairangi ho rahi hai ki kisine ise comments kyo nahi diye...Bahot pyari likhi hai ye poem sach me aaj chand ko dekhne ka man kar raha hai.Ghar jakar raat me jarur didar karunga uska....Bahot khub.