Wednesday, September 19, 2007

रेत के घर


बरसों बाद जब नदी किनारे
गुजरी तो देखे रेत के घर मैंने !
वो कमरे,वो मंदिर,वो आंगन
वो तालाब,वो किश्ती,वो दरवाज़े
वो दीवारें,वो पेड़,वो फूल !
सभी कुछ तो था वहाँ
जो --
अहसास करा रह था खुशहाली का !
ये घर जो बनाए थे नन्हे हाथों ने
वही नन्हे कारीगर पास बैठे
निहार रहे थे अपनी कला को !
अचानक एक तेज़ लहर बड़ी उस ओर
और ले गयी समेट सब अपने साथ !
सब मिट चुका था !
घर का नहीं था कोई नाम -ओ -निशाँ !
उन्हें देखती हुए मैं
सोच रही थी कि ,
रेत की बुनियाद पर
कब टिके हैं किसी के घर !

2 comments:

रंजू भाटिया said...

उन्हें देखती हुए मैं
सोच रही थी कि ,
रेत की बुनियाद पर
कब टिके हैं किसी के घर !

bahut khoob bahut hi achaa likha hai aapne

'A' or 'Gazal' jit said...

Awesome........Simply great....Ye soch sach me sochne par majoor kar deti hai
रेत की बुनियाद पर
कब टिके हैं किसी के घर !
Great