Sunday, September 30, 2007

पत्थर तो आख़िर पत्थर हैं

पत्थर की पूजा करते तो
अक्सर सबको देखा था !
पर पत्थर से करते प्यार
सिर्फ उसको ही देखा है !
कितनी अनजान है वो
नहीं जानती जो शायद
कि पत्थर दिल कब पिघले हैं !
हो जायेगी उम्र पूरी
करते हुए प्यार का इजहार
करते करते दिल की बात !
न पायेगी जब उत्तर उसका
टकरा कर थक-हार कर
बैठ जायेगी एकदम टूट कर !
नादाँ है नहीं जानती
पत्थर से मोहब्बत करना
आसमान पाने की चाह करना है !
और फिर बरसों बाद
उम्र का सफ़र तय करते करते
सामना हुआ जब एक दिन उस से
पूछा उसके दिल का हाल !
ठंडी सी एक आह भरकर
कह डाली उसने यह बात
उम्र भर का यही तकाजा
उम्र भर का यही एक सार
पत्थर की तुम पूजा कर लो
मत करना पत्थर से प्यार !
पत्थर तो अखिर पत्थर हैं
पत्थर दिल कब पिघले हैं !

Saturday, September 29, 2007

वो कोई और

जिसको समझा था अपने सितारों का जहाँ
वो सितारों का जहाँ तो कोई और ही था !
जिसको सोचा था कभी अपना मैंने
वो ख्यालों का खुदा तो कोई और ही था !
क्यों चल दी थी पाने उस मंज़िल को
जिस मंज़िल का निशां कोई और ही था !
मैं लाई थी झोली में भर कर तारे
मेरे घर का सितारा तो कोई और ही था !
ये किसकी परछाई को मैंने अपना समझा
मेरी ज़िन्दगी का मसीहा तो कोई और ही था !
उम्र भर जिस चांद को देखा हमने
उस चन्दा का चकोर तो कोई और ही था !
सोचा था रुखसत होंगे तेरे कांधे पर
मेरी मय्यत को उठाने वाला तो कोई और ही था !

Friday, September 28, 2007

उम्मीद का दीपक

अपनी उम्मीद का दीपक तुम जला कर रखना !
आस का दामन दिल में ही सजा कर रखना !
न जाने वक़्त कब करवट बदल ले
सोया सा एक आलम तुम जगा कर रखना !
न जाने कौन कब तेरे दर से गुज़रे
राहों पर नज़र अपनी बिछा कर रखना !
ये दिल का दर्द तो बढ़ता है हर पल
मगर दिल में इसे तुम दबा कर रखना !
छलकने जो लगें पलकों से मोती
इन अश्कों को पलकों में छुपा कर रखना !

Thursday, September 27, 2007

मन की वेदना

बात कुछ ऐसे निकली
जैसे मुट्ठी से रेत !
ताश के पत्तों से गिर पडे
दिल के कुछ अरमान !
आंसू आंखों से यूं निकले
जैसे उमड़ पड़ा हो पानी
तोड़ कर कोई बाँध !
आह जो निकली मुँह से
जैसे जंगल की सर्द हवाएँ
सनसनाती जा रहीं हो
सीना चीर कर पेड़ों का !
ह्रदय में क्षोभ की ज्वाला
धधक रही है अग्नी सी !
कल के खिलखिलाते
मुस्कुराते,गुनगुनाते शब्द
आज वेदना में डूबे से हैं !
लगता है जैसे आज कुछ
अप्रत्याशित सा घट गया है !

फरियाद

हर रोज़ रात का इंतज़ार करते हैं !
चांद निकलता है तो तुम्हें याद करते हैं !
दिल टूट ता है ,जब होती है अमावस
उस दिन तुम्हारा चेहरा देखने की फरियाद करते हैं !

Wednesday, September 26, 2007

सफ़र

चांद निकलता है ,और रात शुरू होती है !
यहीं से सफ़र की बात शुरू होती है !
परंतु ऐसा भी होता है ,कभी-कभी
चांद न निकले तो अमावस की रात होती है !
तभी असल ज़िन्दगी से मुलाक़ात होती है !
लोग मिलते हैं ,तो कोई बात होती है !
और दोस्ती की शुरुआत यूं ही होती है !
परंतु ऐसा भी होता है कभी-कभी
दोस्त चले जाते हैं ,और याद मन में रहती है !
दोस्ती की ऐसी अमिट छाप मन में होती है !

Monday, September 24, 2007

ऐतबार

कर सको ऐतबार
कोई , इस काबिल नहीं है !
यहाँ डूबने वालों के लिए
शायद कोई साहिल नहीं है !
आयेंगे ज़िन्दगी की राह में
हाथ पकड़ने वाले तो बहुत !
उम्र भर साथ निभाने वाले
शायद इस भीड़ में
शामिल नहीं हैं !

शिक़ायत

चांद को ये शिक़ायत है कि
हम उसका दीदार नहीं करते !
है कौनसी ऐसी बात जो हम
उसका रुखसार नहीं करते !
सुनकर ये शिक़ायत हमने कहा
ये अपनी फितरत है कि हम बेवजह
किसीको परेशां नहीं करते !
तुम दिन में तो कभी दिखते नहीं हो
हाँ ,रात को ही निकलते हो !
अबतो घर में ही रहते हैं हम
बाहर रात नहीं करते !
हाँ, दिख जाओ कभी पूनम को
मेरी खिडकी से कभी तुम
आ जाते हैं पहलू में तुम्हारे
ज़माने कि हम परवाह नहीं करते !
कर देते हैं बयां तुमसे
अफ़साने जहाँ भर के !
कहने पर जो आते हैं तो
बातें दो चार नहीं करते !
चोट खाए बैठे हैं
अपने दिल-ओ-जिगर में !
अबतो आलम ये है कि हम
दोस्तो पर भी ऐतबार नहीं करते !

Sunday, September 23, 2007

अमानत

मुझसे पहले मेरे उम्र भर के अरमान मर गए !
आंखों में आंसू और कुछ तेरे अहसान रह गए !
लपेट कर सारे अरमान फूलों की चादर में ,
दफन करने तेरे दर के पास कह गए !
मेरे पास न कुछ है ,बस एक दुआ के सिवा
मान करना अमानत का जो तुझे सौंप कर गए !
न आये कोई आंच ,न ज़माने की नज़र लगे
जिनके लिए हम ज़माने के सितम सह गए !
दर्द है ,दिल है ,दुआ है और दोस्ती भी है
फूलों की चादर में लपेट कर सबकी दास्ताँ कह गए !

Saturday, September 22, 2007

चांद

शाम के धुंधलके में
आसमान गहरा सलेटी सा था !
सूरज को विदा कर
हर घर दीप जलाने की
तैयारी में था !
अचानक सामने से
दूध सा धुला चांद
उजली दूधिया आभा लेकर
धीमे धीमे ऐसे निकला
जैसे कह रह हो कि --
आज फुर्सत से देखलो मुझको !
आज कोई बादल भी नहीं
कि मैं उसमें छिप जाऊंगा !
न ही तारे छिटके हैं दूर दूर तक !
हाँ, मैं रूक न सकूँगा ,
मुझे जाना होगा
और कुछ वक़्त बाद
फिर यहीं आना होगा !
मुझ संग चल सको
ऐसा भी मुमकिन नहीं !
देख लो जीं भर के मुझको
मैं तो धीमे धीमे निकला !
और ---
मैं उस चांद को देखती रही !
और देखती रही तब तक
जब तक वह सलेटी आसमान
कला सा हो गया !
और वह दूधिया चांद
एक हीरा सा हो गया !

नसीहत

न हवा दो शोलों को इतनी
कहीं जल न जाये घर किसी का !
चाहत को दिल ही दिल में रखो
कहीं उजड़ न जाये घर किसी का !
हाँ, बैचैन तो होता है ये दिल
जब कहता है कोई कि न मिल !
पर इतना तो रखो दिल पे काबू
कि रूक न जाये ये दिल धड़क कर !
कभी ऐसा भी करके तुम देखो
कि दिल के सारे गम तुम सी लो !
बस यही एक नसीहत है तुमको
ग़र गम भी मिलें तुमको तो पी लो !
बसा के दिल में कुछ यादें
चाहो तो सारी ज़िन्दगी जीं लो !
कहते हैं कि इंतज़ार में ही मज़ा है !
कभी मेरे दिल से जो तुम पूछो
कहेगा सदा ये दिल तड़प कर
ये इंतज़ार ही ज़िन्दगी की सज़ा है !

Wednesday, September 19, 2007

बेकरारी

शमा जली भी न थी
कि परवाने आ गए !
दम निकला भी न था ,
कि दफनाने आ गए !
देख उनको करीब अपने ,
न जाने क्यों हम कह बैठे ,
इतना तो कर इंतज़ार
कि, वक़्त आ जाये
क्यों है तू बेकरार
कि दम निकल जाये !

रेत के घर


बरसों बाद जब नदी किनारे
गुजरी तो देखे रेत के घर मैंने !
वो कमरे,वो मंदिर,वो आंगन
वो तालाब,वो किश्ती,वो दरवाज़े
वो दीवारें,वो पेड़,वो फूल !
सभी कुछ तो था वहाँ
जो --
अहसास करा रह था खुशहाली का !
ये घर जो बनाए थे नन्हे हाथों ने
वही नन्हे कारीगर पास बैठे
निहार रहे थे अपनी कला को !
अचानक एक तेज़ लहर बड़ी उस ओर
और ले गयी समेट सब अपने साथ !
सब मिट चुका था !
घर का नहीं था कोई नाम -ओ -निशाँ !
उन्हें देखती हुए मैं
सोच रही थी कि ,
रेत की बुनियाद पर
कब टिके हैं किसी के घर !

Friday, September 14, 2007

कुछ बात

उजालों में चिराग जलाए तो क्या हुआ
अंधेरों में दीप जलाओ तो कुछ बात है !
हंसतों के संग हँसदिये तो क्या हुआ
रोतों को तुम हंसाओ तो कुछ बात है !
इस ज़माने में दुखों के मारे तो बहुत हैं
उनके दुखों का बोझ उठाओ तो कुछ बात है !
लहरों संग तैर आये तो क्या हुआ
तूफानों से निकल आओ तो कुछ बात है !
गुलशन में दो फूल लगाये तो क्या हुआ
वीराने में गुल खिलाओ तो कुछ बात है !
दोस्तो में गुजारी है तुमने उम्र सारी
दो पल हमारे संग गुजारो तो कुछ बात है !
महफ़िल में गुजारी हैं रातें तो क्या हुआ
एक शाम हमारे नाम गुजारो तो कुछ बात है !
देखा किये हो औरों को सुबह से शाम तक
एक नज़र इधर भी डालो तो कुछ बात है !
चार कदम संग चल दिए तो क्या हुआ
उम्र भर संग निभाओ तो कुछ बात है !
जनाजे पे अपने यारों के बहाए हैं तुमने अश्क
हम पर भी दो अश्क बहाओ तो कुछ बात है !

Thursday, September 13, 2007

इल्तजा

इतनी नफरत न करो हमसे
कि हम सह न सकें !
ऐसे रुखसत न करो दर से
कि हम कुछ कह न सकें !
चाहे जितना तुम हमें रोको
हो सके तब हम रूक न सकें !
फिर लुटाने से प्यार क्या होगा
तेरे दिल में जब हम रह न सके !
आंखें बन जायेंगी वो पत्थर
जिसके आंसू कभी बह न सकें !

बरसात

आज बहुत बरसात हुई !
वो मौसम की बरसात नहीं
आंसू की बरसात ही थी !
दुःख के बादल उमड़ घुमड़ कर
मेरे ख्यालों से टकराते थे !
कुछ कटु शब्द बिजली बन कर
मुझको दहलाते जाते थे !
उन शब्दों की कटुता मेरे
अंतर्मन को पीड़ित कर देती थी !
फिर मेरे अन्दर के भाव
काले बादल बन छा जाते थे !
गम का आज अँधेरा छाया
और शब्दों की बिजली कड़की!
दुःख के बादल उमड़ पडे
फिर जोरों की बरसात हुई !
वो मौसम की बरसात नहीं
आंसू की बरसात ही थी !

Wednesday, September 12, 2007

चांद की आस

चांद को पाने की आस क्यों लगाते हो !
अमावस को चांद न निकलेगा
फिर चांदनी रात के ख़्वाब क्यों सजाते हो !
पूनम की रात में मिट जाएगा अँधेरा सारा
जानते हो फिर भी दीप क्यों जलाते हो !
रात का महमान है ये सुबह होते ही चला जाता है
हर सुबह इसकी इंतज़ार में क्यों बिताते हो !
बह्रूपिया है ये रोज़ रुप बदलता है
ऐसे छलिया को आंखों में क्यों बसाते हो !
रोज़ आता है और बेगाना सा बन चला जाता है
उसे जाते देख अपना दिल क्यों जलाते हो !
वो तो पत्थर है वो तुम्हे क्या समझेगा
ऐसे पत्थर से तुम दिल क्यों लगाते हो !
तुम्हारे और उसके बीच आज बड़ी दूरी है
जानते हो तो उसे पाने की आस क्यों लगाते हो !

वक़्त की लकीरें

वक़्त की कलम चलती रही
चेहरे पर लकीरें खिंचती रही !
कुदरत के इस करिश्मे से बेखबर
मोह,माया और रिश्तों के बन्धन में
मैं बंधती रही,उलझती रही !
वक़्त का पहिया घूमता रहा
मैं भी साथ - साथ चलती रही !
फिर लगा ज़िंदगी ढलान पर है !
चलते -चलते कदम थकने से लगे
कुछ पल के लिए जब आइना देखा
हैरान सी रह गयी जब चेहरा देखा !
वक़्त की कलम ने अपनी लकीरें दे कर
बदल ही डाली चेहरे की शकल !
पढ़ न सकी मैं वक़्त की भाषा
हाँ - लगता है ये चहरे की लकीरें
अब बन गयी हैं ठहराव की सूचक !

Tuesday, September 11, 2007

सागर और मैं

आज पूनम की रात
सफ़ेद फैली चांदनी
दूर तक फैला काला सागर !
लहरों से उफनता हुआ किनारा
और वहीँ किनारे बैठी मैं !
सोच रही थी शायद आज
चांद को छूने की ललक में
आकाश की और उठती हैं लहरें !
जानती हैं ,नही छू पायेंगी
फिर भी जाने क्यूं उठती हैं लहरें !
उफनते सागर का वही किनारा
और पास ही बैठी मैं !
देख रही थी सागर की नियति !
बड़ी काली लहरों का आना
और किनारों से टकरा कर
फिर सागर में मिल जाना !
हर एक राही पास आता है
बस ,दो पल बैठ वहीँ किनारे
देख उफनता रौद्र रुप
फिर वापिस हो जाता है !
दूर तक फैला काला सागर
उस सागर का वही किनारा !
आज यहाँ मैं ,बैठ किनारे
जोड़ती हूँ खुदको सागर से !
मेरे दुःख के आंसू भी अब
खारे पानी सी लहरें बन कर
आंखों के कोने तक आते हैं
और पलकों से टकरा कर फिर
वापिस दिल तक आ जाते हैं !
मेरी पलकें आंखें बंद कर
मेरे दुःख मुझको लौटा देती हैं !
और --------------
मैं खुद दुःख के सागर में
उलझ उलझ कर रह जाती हूँ !

Monday, September 10, 2007

मूल्यांकन

मेरे विचार ,
मेरा अतीत,
मेरी तनहाई ,
मेरे गम,
मेरी ख़ुशी
मेरे साथ हैं !
मेरी अभिलाषा ,
मेरा भविष्य ,
मेरी मंज़िल,
मेरा लक्ष्य ,
मेरे समक्ष है!
और मैं
विचाराधीन मुद्रा में,
कशमकश में,
उलझन में,
भंवर में
और हैरत में हूँ .....
कि -कब होगी पूरी मेरी अभिलाषा?
कब मिलेगी मुझको मंज़िल ?
कैसे पूरा होगा मेरा लक्ष्य ?
क्या कर पाउंगी ---
मैं ये मुल्यांकन ?

उलझन

क्यूं मन चंचल इतना हो जाये
कि कोई रोके रोक न पाए
क्यूं चहरे पर उदासी छाये
जैसे सावन की घटा घिर आये
क्यूं आंखों में आंसू आयें
जैसे रिमझिम फुहार पढ़ जाये
क्यूं दिल इतना जल जाये
जैसे जंगल में आग लग जाये
क्यूं तुम कृष्ण बन कर आये
कि मन दीवाना मीरा बन जाये
क्यूं कोई इतनी प्रीत बढाए
कि जीना भी मुश्किल हो जाये
क्यूं चंचल मन पंछी बन जाये
और मस्त हो कर उंचे उड़ जाये

उसकी राधा

मैंने कुम्हार से विनती करके
उससे कुछ चिकनी मिट्टी मांगी
ला कर थोडा प्यार का पानी
अरमानों का घोल बना कर
बडे प्यार से उसको रखा
फिर ख़्वाबों का चाक बना कर
समय के चक्र सा उसे घुमा कर
एक प्यारी मूरत घड़ डाली
ममता की धुप में उसे सुखा कर
चाहत के रंग दे डाले
चहरे को चन्दा कह डाला
कमल नाम नयनों का रखा
होंठों का रंग फिर सुर्ख किया
ज़ुल्फ़ों को काली घटा कह डाला
उस मूरत को बडे प्यार से
अपने मन मंदिर में रखा
अब रोज़ नियम से सांझ सवेरे
उस मूरत के दर्शन करके
मैंने अपना स्वार्थ है साधा
उसको माना मैंने कृष्ण kanhaiya
और मैं बन गयी उसकी राधा

शब्दों का जुलाहा

कुछ हल्के ,टूटे शब्दों के धागे
इन शब्दों का ताना बाना
जाने कितनी बार बुना मैंने
जाने कैसे गाँठ लगी
और शब्दों की कतार रुकी
बातों का धागा इतना लम्बा
कहने का भी होश नहीं
पर शुरू करूं कैसे मैं
मुझको मिलता कोई छोर नहीं
बस एक किनारा काफी है
जिस से बातों की चादर को
दे पाऊं मैं कोई आकार
पर इतना आसान नहीं सपना
जो हो जाये जल्दी साकार
कहॉ है तू शब्दों के जुलाहे
मुझको थोड़ी हिम्मत दे दे
दे दे मुझको कोई हुनर
कि ,मैं भी बुन कर सुन्दर सा
अपने शब्दों का ताना बाना
तैयार करूं ऎसी चादर
जिसको ले कर अपने हाथों में
महसूस करे कोई उसमें
ममता,चाहत,प्यार,लगन
और अपनेपन की गर्माहट
इसी लिए ए शब्दों के जुलाहे
मेरी तुझसे विनती है इतनी
सिख्लादे तू बुन ना मुझको
मीठी बातों का ताना बाना
या दिख्लादे मुझको एक छोर
अपनी बातों की चादर में बस
एक किनारा काफी है
बस एक किनारा काफी है