Saturday, September 29, 2007

वो कोई और

जिसको समझा था अपने सितारों का जहाँ
वो सितारों का जहाँ तो कोई और ही था !
जिसको सोचा था कभी अपना मैंने
वो ख्यालों का खुदा तो कोई और ही था !
क्यों चल दी थी पाने उस मंज़िल को
जिस मंज़िल का निशां कोई और ही था !
मैं लाई थी झोली में भर कर तारे
मेरे घर का सितारा तो कोई और ही था !
ये किसकी परछाई को मैंने अपना समझा
मेरी ज़िन्दगी का मसीहा तो कोई और ही था !
उम्र भर जिस चांद को देखा हमने
उस चन्दा का चकोर तो कोई और ही था !
सोचा था रुखसत होंगे तेरे कांधे पर
मेरी मय्यत को उठाने वाला तो कोई और ही था !

1 comment:

'A' or 'Gazal' jit said...

Im speechless........I dont think my words are worth to admire ur this poem............Just just just best i ever read uptill anywhere.......Great yaar...