Thursday, August 23, 2007

समय की रेत

अक्सर मैंने ज़िंदगी को समय के साथ चलाने का प्रयास किया,मगर समय की रेत पर पॉव न टिका सकी और मेरी कलम यह लिखने को मजबूर हो गयी कि ---------------

समय कि रेत पर पॉव रखते हुए
बढ़ती रही मैं आगे ही आगे
चाहत थी छोड़ कर ये ज़मीन
समय कि रफ़्तार से पा लूं आसमान
पर समय की रफ़्तार के साथ
कब चल पाया है कोई
छोड़ कर मुझको पीछे
निकल गया समय बहुत आगे
पीछे जब मुड़ कर देखा
तो सपाट रेतीला मैदान
कब बन पाए हैं रेत पर निशाँ
समय कब रुका है किसी के लिए
सदा ही रहा है बड़ा बेवफा
कभी चाहा भी कि थाम लूं
समय को दो घडी के लिए
मगर बावफा किसी का न हुआ
न बना किसी का दोस्त कभी
न ही बन पाया कभी हमसफ़र
समय की रेत पर जिसने भी
एक बार जो रख दिए हैं पौंव
कब मिले हैं दोबारा
उसके निशाँ
साथ नही रहा समय का
किसी के लिए कभी एक सा
अपनों से कभी मिलवाया भी
तो कभी बिछुड़े भी हैं
पहुंचाया है कभी बुलान्दियौं पर
मिलाया भी है कभी मिट्टी मैं
यादों की दुनिया मैं घुमाया भी
तो भुलाया भी है किसी का साथ
कभी दिया है घर दर्द डिल को
तो कभी दवा का कर दिखाया काम
न जाने क्यों चंचल है इतना
कभी किसी का न हुआ
बस देता है संदेश यह सबको
कि ----------
समय की रेत पर पॉव रखते हुए
बढते रहो आगे ही आगे ----------------------

2 comments:

रंजू भाटिया said...

न जाने क्यों चंचल है इतना
कभी किसी का न हुआ
बस देता है संदेश यह सबको
कि ----------
समय की रेत पर पॉव रखते हुए
बढते रहो आगे ही आगे ---------------------

शिवानी आप बहुत ही सुंदर लिखती है ..इस रचना के भाव बहुत ही सुंदर लगे सच में समय की रेत पर पॉव रखते हुए
बढते रहो आगे ही आगे .....


बहुत सारी शुभकामनाओं के साथ
रंजना [रंजू]

'A' or 'Gazal' jit said...

Hey ye PURUSH virodhi kyo likhi........itni nafarat achhi nahi hoti.....