ये कैसे बन्धन ने बाँधा है मुझको
जिसका कोई नाम नही !
सिर्फ एक कोमल सा है अहसास
जो एक भीनी,सुन्दर,सफ़ेद
रेशम की चादर सा
लिपट ता जा रहा है मुझसे !
ये कैसा बन्धन है
जो सुनहरे ,सतरंगे सपने सा
तैर रहा है मेरी आंखों में
और मैं उन सपनो से बाँध कर
क्यों भाग रही हूँ उनके पीछे !
ये कैसा बन्धन है
जो मनमोहक ,मदमस्त सुगंध लिए
बना रहा है मुझको मतवाला !
ये कैसा बन्धन है
जिसका न कोई छोर
न कोई ठिकाना !
पर ऐसा बुन गया है ताना बाना
कि बाँध कर रह गयी हूँ इस बन्धन में !
चाहती हूँ कि दे ही डालूँ
इस बन्धन को एक अच्छा सा नाम !
हाँ, शायद इस बन्धन का
सिर्फ और सिर्फ चाहत है नाम !
Monday, August 27, 2007
बन्धन
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शिवानी
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Sunday, August 26, 2007
नासमझ
जहाँ कहीं भी अँधेरे देखे मैंने
वहाँ चिराग जलाती रही थी मैं !
बस एक मेरा ही घर बचा था
जहाँ दीप नही जला !
न देख पाई बहते हुए कभी
किसी की आंखों से मैं आंसू
सबके दुःख मिटाती रही थी मैं !
थी सबके दुखों की खबर मुझे
सबकी ख़ुशी में उम्र भर
शामिल रही थी मैं !
जब देखा झाँक कर
अपने दिल में कभी
बिचारा दिल मुझे
रोता हुआ मिला !
समझा था अच्छी तरह
सबके दिल को मैंने !
मगर हैरान सी रह गयी
जब कोई गुज़र गया
कह कर नासमझ मुझको
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शिवानी
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Sunday, August 26, 2007
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ख़्वाबों की दुनिया
वह एक पागल लड़की थी
जो जाना चाहती थी
ख़्वाबों की दुनिया में
तय करते हुए
हकीकत का सफ़र !
मैंने देखा है उसे
मरीचिका के समान
एक साए के पीछे भागते हुए !
मैंने देखा है उसे
बच्चों की तरह जिद करते हुए !
माँग रही थी वह
अपने ख़्वाबों के साए को
हकीकत के रुप में !
पर कैसे समझायें
उस नादाँ लड़की को
की कागज के फूलों से
कब महके हैं किसी के घर !
मैंने देखा है उसे
बच्चों की तरह रोते हुए !
क्यूंकि -----------
ज़िंदगी की सड़क पर
न जाने कबसे भागते हुए
अब शाम ढल चुकी थी !
और शाम के धुंधलके में
लुप्त हो चुका था वह साया !
इसी झूठ के साए के पीछे
भागते हुए गुज़ार चुकी थी
वह अपनी सारी उम्र !
सच ही ---------
वह एक पागल लड़की थी !
जो जान चाहती थी
ख़्वाबों की दुनिया में
हकीकत का सफ़र तय करते हुए
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Saturday, August 25, 2007
कैलाश मानसरोवर त्रासदी
यह सत्य है कि प्रकृति ईश्वर की देन है! जहाँ प्रकृति का सुन्दर रुप बहुत ही लुभावना होता है, वहीँ प्रकृति का विकृत रुप भी अत्यंत भयंकर होता है ! १८ अगस्त १९९८ कैलाश मानसरोवर त्रासदी प्रकृति के विकृत रुप का एक ताज़ा उदाहरण है !
और आसमान पिघलता रहा
देख प्रकृति का विकृत रुप
एक पल पहले यही आसमान
देख रह था प्रकृति की छटा
वह निर्मल जल ले कर बहती
काली नदी थी माँ समान
गाँव माल्पा बसा किनारे
थी सुख,शांति और आराम
नदी किनारे खडा पहाड़
मानो भारत का सीमा प्रहरी
बढ़ा रहा था माल्पा की शान
हर वर्ष की भाँति अब भी
मानसरोवर के तीर्थ यात्री
कर रहे थे अब विश्राम
अगस्त १८ समय रात का
सोया हुआ था सारा गाँव
थक हार कर १२वा दल भी
पहुंच गया था माल्पा गाँव
खा कर खाना पहुंच शिविर में
करने चला था अब आराम
हुआ अँधेरा बादल गरजे
और जोरों से पानी बरसा
एक ही पल में उफन पडी थी
बहती नदी उस तूफानी रात
हुई गर्जना बादल फट गए
टूट गया वह बड़ा पहाड़
६० यात्री और पूरा माल्पा
बाह गया फिर एक ही पल में
जहाँ ज़िंदगी खेल रही थी
जी रही थी,हंस रही थी
पल रही थी,बढ़ रही थी
वहीं आज बन गया शमशान
चारों ओर थे पत्थर ही पत्थर
पत्थर संग पत्थर हो गया इन्सान
सन्नाटा और सूनापन था
गाँव माल्पा देख रहा था
आज मौत का तांडव नृत्य
कहीं दूर बाह गयी थीं लाशें
कहीं अखबार और कहीं किताबें
न जाने कितने भोले बच्चे
सो गए ले कर आंखों में सपने
लावारिस सी लाशें बन कर
वहीँ पडे थे उनके अपने
कुछ पत्थर के नीचे दब गए
कुछ मिट्टी के नीचे धंस गए
कुछ पानी के संग संग बह गए
कुछ पेड़ों में उलझ कर रह गए
बहुत थके थे कुछ यात्री
तो कुछ सपनों में खोये थे !
बस एक ही पल में सारे
मौत की नींद में सोये थे !
सुबह हुई जब,बारिश रूक गयी
लगता था जैसे गाँव माल्पा
आज प्रकृति से रूठ गया था !
बैठा था जैसे आज सिमट कर
पत्थर के नीचे आज दुबक कर
मगर सदा की तरह विशाल
ऊपर फैला नीला आसमान
देख उन्हें आज पिघल गया था
और अपनी भीगी आंखों से
कर रह था मानो आखिरी सलाम !
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Thursday, August 23, 2007
समय की रेत
अक्सर मैंने ज़िंदगी को समय के साथ चलाने का प्रयास किया,मगर समय की रेत पर पॉव न टिका सकी और मेरी कलम यह लिखने को मजबूर हो गयी कि ---------------
समय कि रेत पर पॉव रखते हुए
बढ़ती रही मैं आगे ही आगे
चाहत थी छोड़ कर ये ज़मीन
समय कि रफ़्तार से पा लूं आसमान
पर समय की रफ़्तार के साथ
कब चल पाया है कोई
छोड़ कर मुझको पीछे
निकल गया समय बहुत आगे
पीछे जब मुड़ कर देखा
तो सपाट रेतीला मैदान
कब बन पाए हैं रेत पर निशाँ
समय कब रुका है किसी के लिए
सदा ही रहा है बड़ा बेवफा
कभी चाहा भी कि थाम लूं
समय को दो घडी के लिए
मगर बावफा किसी का न हुआ
न बना किसी का दोस्त कभी
न ही बन पाया कभी हमसफ़र
समय की रेत पर जिसने भी
एक बार जो रख दिए हैं पौंव
कब मिले हैं दोबारा
उसके निशाँ
साथ नही रहा समय का
किसी के लिए कभी एक सा
अपनों से कभी मिलवाया भी
तो कभी बिछुड़े भी हैं
पहुंचाया है कभी बुलान्दियौं पर
मिलाया भी है कभी मिट्टी मैं
यादों की दुनिया मैं घुमाया भी
तो भुलाया भी है किसी का साथ
कभी दिया है घर दर्द डिल को
तो कभी दवा का कर दिखाया काम
न जाने क्यों चंचल है इतना
कभी किसी का न हुआ
बस देता है संदेश यह सबको
कि ----------
समय की रेत पर पॉव रखते हुए
बढते रहो आगे ही आगे ----------------------
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Thursday, August 23, 2007
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नियति
दिल का दर्द जुबां तक आ जाय तो अच्छा है
आंखों के आंसू दरिया बन बाह जाएँ तो अच्छा है
हर सांस के साथ आहों का निकलना
पलकों पर रुके आंसुओं का
बूँद बूँद बन बह जाना
दिल कि हर धड़कन पर
दर्द महसूस करना
अब नियति बन कर रह गया है
एक नारी जो डरती है
अपना दर्द जुबां पर लाने से
एक नारी जिसके पलकों के बाँध
आंसुओं के समुद्र को रोक रहे हैं
एक नारी जो चटपटा रही है
जैसे कोई मछली रख दीं हो
रेत के समुद्र पर पानी से निकाल कर
है कोई ऐसा जो बाँट सके ये दर्द
है कोई ऐसा जो हह्सूस कर सके
उसके अंतेर्मन पर लगी चोट को
कौन है जो आहत कर गया उसको
कौन है जो अपने मूक बाणों से
छलनी कर गया कलेजा उसका
कौन है उसके साथ यह खिलवाड़ करने वाला
वह कोई और नहीं
वह है हमारे समाज का
एक सभ्य पुरुष ......
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Sunday, August 19, 2007
मेरी कलम से
कविता जीवन का अहसास है/ सही मायने में कविता एक दर्पन के समान है जिसमें कवि के भाव प्रतिबिम्बित हो कर सामने आते हैं.जब कोई मनुष्य अपने भावों को,उदगारों को,अपने विचारों को पूर्णत: अभिव्यक्त नही कर पता तो शायद वाही विचार शब्दों के रुप में कविता के माद्यम से उजागर होते हैं.मैंने भी जिन्दगी को भिन्न भिन्न दृष्टिकोनो से देखने का प्रयास किया है/ हर इन्सान का जिन्दगी में ऐसा दौर भी आता है जब वह महसूस करता है कि ज़िन्दगी एक सतरंगी ख़्वाब है, एक सुनहरा सपना है.कभी -कभी ज़िंदगी में दर्द भी होता है जो जुबां तक लाना मुश्किल सा लगता है तभी मेरी नज़र में...........
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Sunday, August 19, 2007
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