Saturday, March 21, 2009

वो शाम

वो एक हसीं शाम थी
शायद वो उनके नाम थी
हर नजारे में उनका चेहरा था
वो तो गज़ब की शाम थी
उस राह से हम गुज़रे ही थे
अचानक नज़र वो आ गए
उनसे निगाहें क्या मिली
उनके चेहरे का रंग बदल गया
चेहरा सफ़ेद से सुर्ख हुआ
सुर्ख रंग शर्म में बदल गया
करीब से वो गुजरे ही थे
धीरे से हम कुछ कह गए
करके नज़रंदाज़ बातों को
सर को झुका वो चल दिए
एक बार फिर उसी राह पर
अचानक नज़र वो आ गए
जैसे ही हमने कुछ कहा
धीमे से वो कुछ कह गए
उनके लबों पे जो लफ्ज़ थे
वो लफ्ज़ काबिलेगौर थे
माना मंजिल हमारी एक थी
पर रास्ते हमारे और थे !

4 comments:

Anonymous said...

धीमे से वो कुछ कह गए
उनके लबों पे जो लफ्ज़ थे
वो लफ्ज़ काबिलेगौर थे
माना मंजिल हमारी एक थी
पर रास्ते हमारे और थे !
pyar bhi judai bhi,khusurat nazm

संगीता पुरी said...

वाह ... मिलने से बिछडने तक ... बहुत सुंदर रचना।

Kavi Kulwant said...

माना मंजिल हमारी एक थी
पर रास्ते हमारे और थे !
sundar..

Kavi Kulwant said...

bahut kuch kahti huyee.