Friday, May 27, 2011

इबादत न कर पाया

है याद तुमको देख कर 
नज़रों का झुका लेना 
मगर नज़रों की क़ैद से 
तुमको कभी 
रिहा न कर पाया मैं  !

किया था कभी वादा 
तुमसे मिलने का मेरे दोस्त 
मगर वादों की जंजीर से 
खुद को कभी 
जुदा न कर पाया मैं  !

सोचा था न करूंगा 
ताउम्र तुम्हें याद 
मगर यादों के बगीचे से 
खुद को कभी 
पार न कर पाया मैं  !

कबका बिछड़ा हुआ आज 
तेरे दर से जो गुज़रा
मगर चाहते हुए भी 
एक पल को तेरा 
दीदार न कर पाया मैं  !

है दुआ मेरी की सदा 
सलामत रहे तू 
मगर तेरे सिवा 
किसी और की कभी 
इबादत न कर पाया मैं  !  

1 comment:

Udan Tashtari said...

सच्चा प्यार तो ऐसा ही होता है...बढ़िया भाव!!