घर के पिछवाडे आया एक पंछी
बना गया खिड़की में रैन बसेरा
रख दिया उसमे मैंने फिर चुग्गा
बडे प्यार से उसने खाया
अपनी मीठी वाणी से फिर
उसने मेरा मन बहलाया
सारा दिन वह उड़ता फिरता
सांझ पड़े घर आया करता
में भी उसको सांझ सवेरे
उसके घर में देखा करती
पर पंछी तो पंछी ही हैं
कब रहता है एक ठिकाना
एक दिन ऐसा गया यहाँ से
आज तक न वापिस आया
घर के पिछवाडे उसी जगह पर
अब भी बना है वही बसेरा
में भी उसको न फ़ेंक सकी
रोज़ यही सोचा करती हूँ
शायद आज वह लौट आएगा
यही इंतज़ारमें रोज़ करती हूँ !
Wednesday, June 25, 2008
रैन बसेरा
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शिवानी
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Wednesday, June 25, 2008
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Thursday, June 19, 2008
हैरान हूँ
हैरान हूँ , परेशान हूँ !
जिंदगी के दाव पेचों से ,
पूरी तरह अनजान हूँ !
क्या यही खेल हैं जिंदगी के ,
कि अपने अपनों को छलते रहें,
अपनेपन का दिखावा करते रहें !
और हम धिक्कारते रहें
उनको
गैर कह कर ,
जो गैर हो कर भी ,
जान हम पर लुटाते रहें !
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शिवानी
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Monday, June 2, 2008
उसकी राधा
मैंने कुम्हार से विनती करके
उससे कुछ चिकनी मिटटी मांगी !
ला कर थोडा प्यार का पानी
अरमानों का घोल बना कर
बडे प्यार से उसको रखा !
फिर ख़्वाबों का चाक बना कर
समय के चक्र सेउसे घुमा कर
एक प्यारी मूरत घड़ डाली !
ममता की धूप में उसे सुखा कर
चाहत के रंग दे डाले !
चेहरे को चन्दा कह डाला ,
कमल नाम नयनों का डाला !
होठों का रंग फिर सुर्ख किया ,
जुल्फों को काली घटा कह डाला !
उस मूरत को बडे प्यार से ,
अपने मन मंदिर में रखा !
अब रोज़ नियम से सांझ सवेरे ,
उस मूरत के दर्शन कर के ,
मैंने अपना स्वार्थ है साधा !
माना उसकोकृष्ण कन्हैया ,
और मैं बन गयी उसकी राधा !
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शिवानी
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Monday, June 02, 2008
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