वक़्त की कलम चलती रही
चेहरे पर लकीरें खिंचती रही !
कुदरत के इस करिश्मे से बेखबर
मोह,माया और रिश्तों के बन्धन में
मैं बंधती रही,उलझती रही !
वक़्त का पहिया घूमता रहा
मैं भी साथ - साथ चलती रही !
फिर लगा ज़िंदगी ढलान पर है !
चलते -चलते कदम थकने से लगे
कुछ पल के लिए जब आइना देखा
हैरान सी रह गयी जब चेहरा देखा !
वक़्त की कलम ने अपनी लकीरें दे कर
बदल ही डाली चेहरे की शकल !
पढ़ न सकी मैं वक़्त की भाषा
हाँ - लगता है ये चहरे की लकीरें
अब बन गयी हैं ठहराव की सूचक !
Wednesday, September 12, 2007
वक़्त की लकीरें
Posted by
शिवानी
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Wednesday, September 12, 2007
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3 comments:
अच्छा प्रयास है आपका !
पर कविता में वक्त शब्द का दुहराव कुछ ज्यादा लग रहा है. उसकी जगह दूसरे समानार्थी शब्दों का प्रयोग किया जा सकता है.
Bahot hi khubsurat...bahot hi jyada khubsurat dhang se aur asani se piroya hai shabdo ko tumne...
वक़्त की कलम चलती रही
चेहरे पर लकीरें खिंचती रही !
कुदरत के इस करिश्मे से बेखबर
मोह,माया और रिश्तों के बन्धन में
मैं बंधती रही,उलझती रही...
kitni achchhi panktiyaan aazmaayi hain aapne! mujhe aapko padhna raas aane laga hai. bas,yun hi likhte rahiye.
www.prasoon-mullick.blogspot.com
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