इतनी नफरत न करो हमसे
कि हम सह न सकें !
ऐसे रुखसत न करो दर से
कि हम कुछ कह न सकें !
चाहे जितना तुम हमें रोको
हो सके तब हम रूक न सकें !
फिर लुटाने से प्यार क्या होगा
तेरे दिल में जब हम रह न सके !
आंखें बन जायेंगी वो पत्थर
जिसके आंसू कभी बह न सकें !
Thursday, September 13, 2007
इल्तजा
Posted by शिवानी at Thursday, September 13, 2007
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5 comments:
पर्ल जी,
आपके इस ब्लॉग की जानकारी हमें नहीं थी, आपने काफ़ी-कुछ लिखा है। हम इसकी सूचना तमाम हिन्दी-प्रेमियों को हिन्द-युग्म के माध्यम से दे रहे हैं।
Kya baat hai shinu............bahot hhi khub, sach me bahot bahot achhi gazal likhi.....I really like it...
पर्ल जी,
सचमुच आपके नामानुसार
आपकी एक एक रचना मोती है..
सच्चाई है, गहराई है
पढ़कर अनुभूति होती है...
कुछ शब्द नहीं हैं कहने को
फिर भी कुछ कह कर जाना है..
ये कहना अब कुछ भी कहना
सूरज को दीप दिखाना है..
- बहुत ही उत्कृष्ट रचानायें पढने को मिलीं
बधाई
-राघव
aankhe ban jaayengee vo patthar
jisake aansoo kabhee bah na sake !
bohat pyara likhti hain ap !
bohat acha laga ap ka blog roman mein read kar k !
isi tarha likhti rahiye ap k alfaz k chunaao kafi acha laga mujhey lekin ap ki poetry or behtar ho sakti hai agar lafzon ka chunaao thora or easy kiya jaey to .
so koshish keejye ga !
wese ap ka autograph india mein hi aa kar lon ya pakistan aa rahi hain ?
क्या दर्द है और सुरूर भी..
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