चांद को पाने की आस क्यों लगाते हो !
अमावस को चांद न निकलेगा
फिर चांदनी रात के ख़्वाब क्यों सजाते हो !
पूनम की रात में मिट जाएगा अँधेरा सारा
जानते हो फिर भी दीप क्यों जलाते हो !
रात का महमान है ये सुबह होते ही चला जाता है
हर सुबह इसकी इंतज़ार में क्यों बिताते हो !
बह्रूपिया है ये रोज़ रुप बदलता है
ऐसे छलिया को आंखों में क्यों बसाते हो !
रोज़ आता है और बेगाना सा बन चला जाता है
उसे जाते देख अपना दिल क्यों जलाते हो !
वो तो पत्थर है वो तुम्हे क्या समझेगा
ऐसे पत्थर से तुम दिल क्यों लगाते हो !
तुम्हारे और उसके बीच आज बड़ी दूरी है
जानते हो तो उसे पाने की आस क्यों लगाते हो !
Wednesday, September 12, 2007
चांद की आस
Posted by शिवानी at Wednesday, September 12, 2007
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2 comments:
बहुत सुन्दर कविता बनी है पर्ल जी, एक दम सच कहा आपने चाँद धोखेबाज है पर ये दिल भी तो अपना न हुआ, बैरी जा कर चाँद का हो गया
maa k asheerwad se yehe sab sambhav hua hai...seema kataria
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