Tuesday, October 30, 2007

हमें अच्छा नहीं लगता


यूँही चलते हुए एक दिन
जब हम उस बाग़ से गुज़रे!
और उस पेड़ के बडे पत्ते
हमारी राह में बिखरे !

मगर अब हम वहाँ दोबारा
कभी जाना नहीं चाहते !
भूले से भी वहाँ जाना
हमें अच्छा नहीं लगता !

वो महफिल याद है हमको
हमें महफिल-ए-जान कह देना !
हमारी हर बात पर सबका
वो हँसना खिलखिला देना !

मगर अब हम वहाँ दोबारा
कभी जाना नहीं चाहते !
किसी की बात पर हँसना
हमें अच्छा नहीं लगता !

गुलाबों के बडे गुलदस्ते
हमारी जान थे कल तक !
वो पीला रंग ,महक उनकी
हमारी जान थे कल तक !

मगर अफ़सोस ये रंगत
उदासी का सबब है अब !
गुलाबों का कहीं भी ज़िक्र
हमें अच्छा नहीं लगता !

6 comments:

Udan Tashtari said...

बहुत सुन्दर.

राजीव तनेजा said...

कभी धूप कभी छांव....ज़िन्दगी इसी का नाम है ....बस यूँ ही लिखती रहें

Sajeev said...

वाह शिवनि, इस बार बहुत हि सुन्दर लिखा है तुमने

बालकिशन said...

अति सुंदर! अति सुंदर!! अति सुंदर!!!

चिराग जैन CHIRAG JAIN said...

उपमान और उपमेय के अंतर की अनुमोदना के लिए धन्यवाद!
कदाचित आप भी सृजन की इस वेदना को उतने ही निकट से अनुभूत करते हैं......

-चिराग जैन

डाॅ रामजी गिरि said...

मगर अफ़सोस ये रंगत
उदासी का सबब है अब !
गुलाबों का कहीं भी ज़िक्र
हमें अच्छा नहीं लगता !


बहुत ही मर्मस्पर्शी रचना है आपकी..

विरह वेदना का अनूठा चित्रण .....